बार-बार हाथ धोना, मास्क पहनना, लोगों से दूर रहना, ये सब खिझाते हैं।  मन सोचता हैं कि ये मजबूरियां जल्दी ख़त्म हों।  और इसीलिए तनाव पैदा होता हैं।  
यदि तनाव से बचना हैं और सुरक्षा भी सुनिश्चित करनी है, तो जल्द से जल्द इन्हें आदत बना लीजिये। 

               यदि कोरोना से बचना है तो चूहों से सीखिए

मज़ाक में पूछा जाता है कि हिंदुस्तानी महिलाओं की सबसे बड़ी समस्या क्या हैं? इसका जवाब मज़ाकिया तो हैं, परन्तु वास्तविकता के क़रीब भी हैं- 'आज क्या बनाऊं?' महिलाओं के लिए खाना बनाना मुश्किल नहीं है, उसकी तो उन्हें आदत है।  उन्हें मुश्किल में डालता है, रोज़ का निर्णय करना। 
यहाँ दो शब्द हैं- आदत और निर्णयआदत से चीज़ें आसान हो जाती हैं, लेकिन फ़ैसले की ज़िम्मेदारी तनाव देती हैं।  फ़ैसला छोटा है या बड़ा, इसके आधार पर तनाव भी कम या ज़्यादा होता हैं।  दिन में हमें कितनी बार फ़ैसला करना पड़ रहा है, यह भी तनाव की मात्रा निर्धारित करता हैं।  जैसे - बीते ढाई महीनों से आपको हर रोज़ कई-कई बार निर्णय करना पड़ रहा है।  अब हाथ धोना है, अब सैनिटाइज़र लगाना है, अब कुहनी से स्विच ऑन / ऑफ़ करना है, मास्क लगाना है, लोगों से छह फ़ीट दूर रहना है..।
ये छोटीं - छोटीं  बातें हैं, किन्तु दिमाग़ को इनके लिए बार-बार निर्णय करने पड़ रहे हैं।  यही चीज तनाव पैदा कर रही है, जो 'हम तो त्रस्त हो गए'  वाक्यों के रूप में गाहे-बगाहे अभिव्यक्त होता रहता है।  बहरहाल, अब उस दौर को याद कीजिए, जब आप गाड़ी चलाना सीख रहे थे। आज आप बातें करते, गाने सुनते या किसी समस्या पर विचार करते हुए भी वहां चला लेते हैं और मौके पर ब्रेक भी लगा लेते हैं।  लेकिन शुरुआत में क्या होता था? कब ब्रेक लगाना है, कब एक्सीलरेटर कम/ज्यादा करना है, कब मुड़ना है- ऐसी तमाम बातों का निर्णय आपको सचेत रूप से करना पड़ता था। 
आदतों से आसान ज़िंदगी    
सड़क पर सारी परिस्थितियां अब भी समान हैं।  लेकिन अब आपका दिमाग़ स्वचालित ढंग से ये सारी क्रियाएँ करता है।  आम भाषा में कहें, तो आपको गाड़ी चलाने की आदत पड़ गई है।  आँखे सड़क पर गड्ढा देखती हैं, तो दिमाग़ को सोचना नहीं पड़ता कि क्या करना है।  वह हालात के अनुसार पुराने किसी फ़ैसले को लागू कर देता है। 
यहाँ सवाल उठता है कि दो-ढाई महीनों में आपको गाड़ी चलने की आदत पड़ गई, लेकिन कोरोना से बचाव के उपाय क्यों अब भी खीझ पैदा करते हैं?
इसका संकेत Massachusetts Institute of Technology(MIT) की रिसर्च में छुपा है।  इसके तहत वैज्ञानिकों ने अंग्रेजी के 'टी' आकार की नली के निचले सिरे से चूहों को गुज़ारा।  चूहे शुरुआत में नली में सूंघते, खरोंचते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ते।  फिर वे नली के ऊपरी दाहिने सिरे पर जाते और अंत में बाएं सिरे पर, जहाँ उन्हें चॉकलेट रखी मिलती।  बाद में चूहे तेज़ी से सीधे नली के ऊपरी बाएं सिरे पर पहुंचने लगे।  पहले जहाँ उनके मष्तिष्क का बड़ा हिस्सा बहुत सक्रिय रहता था, वहीं अब सारी गतिविधियां बेसल गैंग्लिया नामक एक छोटे-से हिस्से तक सीमित हो गईं, वह भी अत्यंत कम।  ज़ाहिर है, अब उन्हें सीधे चॉकलेट वाले सिरे तक पहुंचने की 'आदत' पड़ गई थी। 
आपका इनाम बड़ा है 
दफ़्तर के लिए निकलते वक़्त हम पेन,डायरी, मोबाइल, आदि अमूमन नहीं भूलते, क्यूंकि पता है की इनके बग़ैर काम नहीं चलेगा।  अन्तः ख़ुद को बताइये कि मास्क,सैनिटाइज़र और हाथ धोना भी ज़रूरी हैं।  ये बोझ नहीं हैं।  सोचिये कि इनसे कोण-सी चॉकलेट (इनाम) मिलेगी? आपका इनाम है - आपकी और प्रियजनों की सलामती।  एक बार ख़ुद को ये समझा लेने के बाद देखिएगा कि सारी आदतें कितनी जल्दी बनती हैं और आपका तनाव व खीझ कैसे उड़नछू हो जाते हैं। 
इसीलिए ज़रूरी हैं आदतें 
बेसल गैंग्लिया में आदतें इकट्ठा होती रहती हैं, इसीलिए बाक़ी दिमाग़ को आराम रहता है।  यदि आदतें न बनी होतीं, तो सोचिए कि हमें हर दिन ब्रश करने, नहाने, कंघी करने, खाने-पिने, गाड़ी चलने आदि को लेकर कितने निर्णय करने पड़ते।  इसके चलते हम लगातार तनाव में रहते और फिर बड़े निर्णय करने के लिए दिमाग़ के पास ऊर्जा और जगह ही नहीं रह पाती !
इसीलिए, कोरोना से बचने के उपायों को आदत बनाइए। हमें खुलकर बात करने या हाथ से स्विच ऑन /ऑफ़  करने की आदत है, इसीलिए उन्हें हटाकर नई आदतें डालने में दिक़्क़त हो रही है।  फिर इनको हम अस्थायी या बोझ मानकर चल रहे हैं। इसीलिए ये बेसल गैंग्लिया में पक्की नहीं हो पा रहीं हैं और हर बार सचेत निर्णय की अनिवार्यता के चलते हमें तनाव महसूस हो रहा है।  सुरक्षा को आदत बनाइए, तनाव भाग जाएगा।